जगतगुरु स्वामी रामभद्राचार्य को वर्ष 2023 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान देने की घोषणा हुई है, स्वामी रामभद्राचार्य महाराज चित्रकूट के तुलसीपीठाधीश्वर के पद पर विराजमान हैं, एक उच्चकोटि के साधक और संत होने के साथ-साथ वह अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि एवं साहित्यकार भी हैं, उन्होंने भार्गवराघवीयम् और गीतरामायणम् सरीखे उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की है, साथ ही स्वामी रामानन्द की परंपरा में उन्होंने श्रीराघवकृपाभाष्यम् का जगतगुरु रामभद्राचार्य प्रणयन भी गीता इत्यादि पर किया है, वे बचपन से ही मन की आखों से देख रहे हैं और ज्ञान की कलम से रच रहे हैं.

स्वामी रामभद्राचार्य जी की रचनाओं में कविताएं, नाटक, शोध-निबंध, टीकाएं, प्रवचन और खुद के ग्रंथों पर स्वयं सृजित संगीतबद्ध प्रस्तुतियां शामिल हैं वे 100 से ज्यादा साहित्यिक कृतियों की रचना कर चुके हैं, जिनमें प्रकाशित पुस्तकें और अप्रकाशित पांडुलिपियां, चार महाकाव्य, तुलसीदास रचित रामचरितमानस पर एक हिंदी भाष्य, अष्टाध्यायी पर पद्यरूप में संस्कृत भाष्य और प्रस्थानत्रयी शास्त्रों पर संस्कृत टीकाएं शामिल हैं, उनकी रचनाओं के अनेक ऑडियो और विडियो भी जारी हो चुके हैं, वह संस्कृत, हिंदीअवधि, मैथिली और कई दूसरी भाषाओं में लिखते हैं.

स्वामी रामभद्राचार्य जी की श्रीभार्गवराघवीयम् उनकी बेहद लोकप्रिय रचना है जिसके लिए उन्हें संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, उन्हें महाकवि तथा कविकुलरत्न आदि अनेक साहित्यिक उपाधियों से भी अलंकृत किया जा चुका है, जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवतगीता और 11 उपनिषदों) पर श्रीराघवकृपाभाष्यम् नामक संस्कृत टीकाओं की रचना की है. रामानन्द संप्रदाय में प्रस्थानत्रयी पर संस्कृत टीका प्रस्तुत करने वाले रामभद्राचार्य द्वितीय आचार्य हैं, इनसे पूर्व स्वयं रामानंद ने आनन्दभाष्यम् नामक प्रथम टीका की रचना की थी, इस प्रकार लगभग 600 वर्षों की कालावधि में प्रस्थानत्रयी पर प्रथम बार संस्कृत टीकाओं को रामभद्राचार्य ने प्रस्तुत किया है.
स्वामी रामभद्राचार्य जी का जन्म
रामभद्राचार्य जी का जन्म 14 जनवरी 1950 को शाण्डीखुर्द, जौनपुर में हुआ, जन्म के दो महीने बाद ही स्वामीजी के नेत्रों की ज्योति चली गई, लेकिन 5 वर्ष की उम्र में बिना नेेत्रों के ही इन्होंने श्रीमद्भागवत कंठस्थ कर लिया. 7 वर्ष में गिरिधर नाम के इस बालक ने संपूर्ण रामचरितमानस याद करके उसे अपने जीवन का सार बना लिया, 1975 में अखिल भारतीय संस्कृत वाद-विवाद प्रतियोगिता में वह प्रथम आए, 1978 में वे यूजीसी जेआरएफ पाने वाले युवा संन्यासी बने, 1981 में पीएचडी के लिए स्वामी रामभद्राचार्य ने ‘आध्यात्मरामायणे अपाणिनीयप्रयोगाणां विमर्शः’ को विषय चुना. 19 नवंबर 1982 को स्वामी रामभद्राचार्य ने चित्रकूट में तुलसीपीठ की स्थापना की, इसके 6 वर्ष बाद उन्हें 1988 में जगतगुरु रामानंदाचार्य पद पर सुशोभित किया गया.