विनेश दीक्षित, रायपुर. एबी न्यूज के स्पेशल रिपोर्ट में बात करेंगे चुनावी चंदे और उसके धंधे से जुड़े कारोबारी और संस्थानों की, साथ ही बात करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे क्यों असंवैधानिक करार दिया और इसके बाद अब आगे क्या होगा?
सबसे पहली बात अगर सरकार ने कोई अध्यादेश नहीं लाया या सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फ़ैसले पर पुनरविचार या रोक नहीं लगाई तो अगले महीने देश की जनता को सब कुछ पता चल जाएगा कि चुनावी बॉन्ड किस व्यक्ति या कंपनी ने किस पार्टी को कितना चंदा देने के लिए खरीदे हैं, बीते हफ्ते के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब कई दिग्गज कारोबारियों में इस बात का डर है कि उनका नाम सार्वजनिक हो जाएगा कि उन्होंने सरकार को कितना और विपक्ष में बैठी पार्टियों को कितने रुपए का चंदा देने के लिए बॉन्ड खरीदा है.
यहां ये बात महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड की स्कीम बंद कर दी है. तो सबसे पहले समझ लेते हैं कि चुनावी बॉन्ड स्कीम क्या है? दरअसल केंद्र सरकार ने 2018 में चुनावी बॉन्ड लाँच किए थे Election Donation Scam उस समय भी रिज़र्व बैंक और चुनाव आयोग ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई थी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई. हालांकि योजना आसान थी यानी बिल्कुल सिंपल. वो ऐसे कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया चुनावी बॉन्ड, चुनाव से पहले बेचेगा. जो भी धन्नासेठ चंदा देना चाहे वो ख़रीद ले. फिर बॉन्ड जिस पार्टी को देना है उसे दे दें.
अब उसकी चहेती पार्टी इस बॉन्ड को बैंक में जाकर भुना लेगी और उसे बॉन्ड के अनुरूप रुपया मिल जाएगा, आप सोच रहे होगे इसमें क्या गलत है तो उस पर भी आगे बात करेंगे. Election Donation Scam इस योजना में पेंच ये है कि राजनीतिक पार्टी चुनाव आयोग को यह तो बताएगी कि बॉन्ड से कितने रुपए मिले, लेकिन बॉन्ड किसने दिया यह बताना ज़रूरी नहीं था. इस तरीक़े से पिछले 6 साल में 16 हज़ार करोड़ रुपए का चंदा पार्टियों को मिला है.
चुनावी चंदे के धंधे में कौन कौन शामिल?
योजना को लेकर सरकार की दलील थी कि चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखना चाहिए. क्योंकि उन्हें परेशान किया जा सकता है. इस दलील में पेंच यह भी था कि स्टेट बैंक के पास यह जानकारी मौजूद हैं कि किसने बॉन्ड ख़रीदा और किसने भुनाया, अब स्टेट बैंक से जानकारी सरकार के पास पहुंचने की आशंका बनी हुई है. जिससे सरकार को पता चल सकता है कि विपक्ष को किसने कितना चंदा दिया, लेकिन स्कीम के तहत विपक्ष के पास यह जानकारी नहीं होगी.
अब अगर सरकार और विपक्ष को छोड़ भी दें तो जनता तक को यह पता ही नहीं चलेगा कि किसने चंदा दिया? और चंदा देने वाले धन्नासेठ को उसके बदले में क्या मिला? जनता को जानने का ये अधिकार ही चुनावी बॉन्ड को बंद करने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का आधार है, वैसे भी देश में चुनावी चंदा हमेशा से विवादित रहा है. मामला है 1969 का। तब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कंपनियों को चंदा देने से रोक दिया था. इंदिरा गांधी के इस फैसले से राजीव गांधी ने 1985 में जाकर रोक हटाई थी और कंपनियों को मुनाफ़े का 5% चंदा देने की अनुमति दी गई. अब चुनावी बॉन्ड आया तो घाटे में चलने वाली कंपनियों को भी चंदा देने की अनुमति दे दी गई. सुप्रीम कोर्ट को इस पर भी आपत्ति है.
Election Donation Scam सर्वोच्च अदालत को लगता है कि घाटे वाली कंपनियां अपने फ़ायदे के लिए पार्टियों को चंदा देगी और अपने मुताबिक पॉलिसी बदलवा सकती है. यानी जैसा कहा जाता है तुम मुझे चंदा दो मैं तुम्हें धंधा दूंगा। वैसा ही सब कुछ हो सकता है। इस सब के इतर मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियां चुनावी चंदा पार्टियों को सीधे दे सकती हैं. लेकिन यहां सवाल ये है कि कौनसी कंपनी सीधे जाकर ऐसी हिम्मत दिखाती है.
UPA सरकार लायी थी चुनावी ट्रस्ट स्कीम
आम तौर मोदी सरकार को घेरने वाले ये ना भूले कि ऐसी ही स्कीम यूपीए यानी कांग्रेस की सरकार ने भी लागू की थी, तो पहले उसे भी समझ लीजिए, दरअसल किसी एक कंपनी को परेशानी ना हो इसलिए 2013 में UPA की सरकार चुनावी ट्रस्ट स्कीम लायी थी. इसके तहत कोई भी कंपनी या व्यक्ति ट्रस्ट में चंदा दे सकता है. ट्रस्ट यह रुपया पार्टियों को बाँट देता है. अभी देश में 18 ऐसे ट्रस्ट हैं, इनमें सबसे सक्रिय भारती ग्रुप का प्रुडंट ट्रस्ट है. इस रास्ते से दस साल में ढाई हज़ार करोड़ रुपये का चंदा आया है.
Election Donation Scam इस चंदा के भी 88% रुपया प्रुडंट से आया है. ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ मेघ इंजीनियरिंग, कोरोनावायरस वैक्सीन बनाने वाला सीरम इंस्टीट्यूट, आर्सलर मित्तल निप्पान, इस ट्रस्ट के सबसे बड़े दानदाता है. यह स्कीम भी सफल नहीं कही जा सकती है, जैसा की हम सब जानते हैं कि चुनावी चंदे में काले धन का खेल हमेशा से रहा है. ये हम नहीं कह रहे बल्कि ये बात तो खुद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताई थी.
सरकार का कहना था कि चुनावी बॉन्ड से पहले हर 100 रुपये में से 69 रुपये अज्ञात स्रोत से आते थे, यानी यह पता ही नहीं चलता था कि किसने चंदा दिया है. क़ानून में चोर रास्ता है. लिहाजा पार्टियों को 20 हज़ार रुपये से नीचे दान देने वाले के नाम सार्वजनिक करने की ज़रूरत नहीं है, अब मान लीजिए किसी पार्टी को 1 करोड़ रुपया कैश में मिला और उसने कहा कि 525 लोगों ने उसे 19-19 हज़ार रुपये दिए तो क़ानून कुछ नहीं कर पाएगा. यानी सोर्स बताने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ेगा.
Election Donation Scam यूपी की पूर्व सीएम मायावती यानी बहनजी की पार्टी बहुजन समाज पार्टी का तो पूरा 100 रुपए अज्ञात स्रोतों से ही आता रहा हैं. इन सबके आधार पर सरकार की दलील थी कि पहले से ही चंदा देने वालों की पहचान का पता नहीं है. तो आगे सबसे नाम बताने की क्या जरूरत है,
वैसे भी चुनावी बॉन्ड से भी कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा. 2021-22 में 8 बड़ी पार्टियों को जो चंदा मिला उसके 100 रुपये में से 66 रुपये देने वालों का पता नहीं है. यानी ये आंकड़ा पहले से कम ही है, वहीं इन अज्ञात स्तोत्रों से आने वाले 100 में से 83 रुपये चुनावी बॉन्ड से आए यानी जो पैसे कैश में आ रहे थे उसका बड़ा हिस्सा बॉन्ड से आने लग गया.
15 मार्च को स्टेट बैंक चुनाव आयोग को सौपेंगा लिस्ट
अब सवाल ये कि आगे क्या होगा, तो अब सबकी नज़र 15 मार्च पर टिकी है. इस दिन स्टेट बैंक को बॉन्ड ख़रीदने वालों की लिस्ट चुनाव आयोग को देनी है. चुनाव आयोग को यह लिस्ट अपनी वेबसाइट पर लगाना है. यह सुप्रीम कोर्ट का आदेश है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ ऐसा अनुमान है कि सरकार इस फ़ैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में नहीं जाएगी, लेकिन कोई जनहित याचिका लगवा सकती है. ताकि लिस्ट जारी हो या नहीं, लेकिन एक बात तय है कि साफ़ सुथरे तरीक़े से चुनावी चंदा देने का कोई रास्ता अब तक नहीं निकल पाया है.
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